दिंनाक: 11 Jan 2021 16:33:48 |
जनजाति धार्मिक परंपरा एवं देवलोक विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
भोपाल,। जनजातीय संग्रहालय में दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान व आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, संस्कृति विभाग के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित ‘जनजातीय धार्मिक परंपरा और देवलोक’ विषय पर तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में दूसरे दिन भी कई शोध पत्र प्रस्तुत हुए। इस अवसर पर विद्वानों ने भारतीय आख्यान परंपरा, पौराणिक लोक और जनजाति आख्यान परंपरा और जनजातीय समुदाय में धार्मिक अंतर्संबंधों पर प्रकाश डाला।
'भारतीय आख्यान परंपरा-पौराणिक, लोक और जनजातीय आख्यान' विषय पर चर्चा करते हुए डॉ. महेन्द्र मिश्र ने कहा कि पुराने समय में जिन लोगों ने अग्नि को स्वीकर नहीं किया उन्हें असुर कहा गया। भारतीय सभ्यता के चार स्तंभ - मूलाचार, लोकाचार, देशाचार, शिष्टाचार हैं। शिष्टाचार सभी में हैं, चारों तत्व आपस में जुड़े हुए हैं। भारत के बाहर शोध करने जायेंगे तो भारतीय विखंडन को पायेंगे। भारतीय जीवन धार्मिक परंपरा है, आध्यात्मिक परंपरा है। प्रकृति पूजा के मानवीकरण को विदेशी लोगों ने विखंडन के रूप में प्रचलित किया है। उन्होंने कहा कि वास्तव में जनजातीय स्वरूप वैदिक स्वरूप है।
बैतूल के सांसद दुर्गादास उइके ने कहा कि जनजाति समाज का गौरवशाली इतिहास है। जनजाति समाज में देवी-देवताओं की सार्थकता है, जनजाति समाज प्रकृति पूजक है। हमारे पूर्वजों ने नदियों को माँ माना है। जनजाति समाज शिव-पार्वती के ही वंशज हैं। शिव आरण्यक निवासी है। उनके वंशज भी वहीं हैं इस कारण से पूजन करने की मान्यता है। इतिहासकारों ने जो इतिहास लिखा है उसमें विषयों की संवेदनशीलता में जाकर अन्तरमन को स्पर्श नहीं कर सके। इतिहास में गलतियाँ हुई हैं। राम ने सबरी के जूठे बैर खाये, हिडिम्बा की शादी भीम से हुई। रामायण में भी जनजाति समाज का गौरव है।
धनेश परस्ते ने कहा कि आदिम जनजाति प्रकृति पूजक है, सभी क्षेत्रों के अलग-अलग देवी-देवता हैं इन क्षेत्रों के लोग अपनी-अपनी तरह से पूजा करते हैं। जनजातियों के आख्यान उनके दार्शनिक चिंतन होते हैं। जल, जंगल, जमीन जनजातियों के जीवन दर्शन कला का मूल है । आधुनिकता के प्रभाव से धीरे-धीरे जनजातियों की संस्कृतियाँ खत्म हो रही है।
‘भारत में जनजातीय धार्मिक अंतर्संबंध’ विषय पर चर्चा करते हुये दिल्ली से पधारी लेखिका सुश्री संध्या जैन ने कहा कि जनजाति और हिन्दुओं में कोई फर्क नहीं है, जनजाति को हिन्दू कहो या हिन्दू को जनजाति । इस्लाम जहाँ गया दरार पैदा किया और आक्रमण किया। जाति व गोत्र के प्रति हीन भावना नहीं होनी चाहिए। ऐसा होने पर जनजाति समाज को खतरा है।
जनजातीय, वैदिक तथा पौराणिक देवलोक विषयक डॉ. धर्मेंद्र पारे ने अपने वक्तव्य में कहा कि वैदिक, पौराणिक और आरण्य जगत सब एक ही है जिस प्रकार ऋचाएँ जो वेद की किसी ऋचा में अभिमंत्रित हैं वहीं लोकगीतों के मनुहार में है। देव वही हैं, अनुष्ठान वही हैं, भावभूति, विचार और आकांक्षाएँ समान हैं।
डॉ. श्रीराम परिहार जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि लोक और वेद में कोई विभेद नही है जो लोक में है वही शास्त्र में है। दोनों के मूल में प्रकृति के पंचतत्व ही हैं वही विभिन्न रूपों में पूजनीय है।
दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के निदेशक डॉ. मुकेश कुमार मिश्रा ने बताया कि 11 जनवरी, 2021 को प्रात: 9:30 से शिल्प/चित्रांकन/वाद्य इत्यादि कला-रूपों में अभिव्यक्त जनजातीय देवलोक विषय पर डॉ. महेश चंद्र शांडिल्य, भोपाल, डॉ. सुमेर सिंह सोलंकी, बड़वानी, डॉ. नारायण व्यास, भोपाल के उद्बोधन होंगे। भिलाला समाज की धार्मिकता और अनुष्ठान पर डॉ. रेखा नागर शोध पत्र प्रस्तुत करेंगी। दोपहर 12 बजे जिज्ञासा सारांश सत्र होगा जिसमें समापन वक्तव्य डॉ. कपिल तिवारी देंगे जिसमें डॉ. हेरे कुमरा नागु, भाग्यनगर समापन सत्र के विशिष्ट अतिथि होंगे।
इस क्रम में जनजातीय नृत्य गीतों में अभिव्यक्त देवलोक पर डॉ. बसंत निर्गुणे और डॉ. मन्नालाल रावत के व्याख्यान हुए।
दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के निदेशक डॉ. मुकेश कुमार मिश्रा ने बताया कि 11 जनवरी, 2021 को प्रात: 9:30 से शिल्प/चित्रांकन/वाद्य इत्यादि कला-रूपों में अभिव्यक्त जनजातीय देवलोक विषय पर डॉ. महेश चंद्र शांडिल्य, भोपाल, डॉ. सुमेर सिंह सोलंकी, बड़वानी, डॉ. नारायण व्यास, भोपाल के उद्बोधन होंगे। भिलाला समाज की धार्मिकता और अनुष्ठान पर डॉ. रेखा नागर शोध पत्र प्रस्तुत करेंगी। दोपहर 12 बजे जिज्ञासा सारांश सत्र होगा जिसमें समापन वक्तव्य डॉ. कपिल तिवारी देंगे जिसमें डॉ. हेरे कुमरा नागु, भाग्यनगर विशिष्ट अतिथि होंगे।