कई हजार साल पहले, अष्टावक्र नाम के एक महान गुरु हुए। वह धरती के महानतम ऋषियों में से एक थे जिन्होंने उस समय एक विशाल आध्यात्मिक आंदोलन चलाया था। ‘अष्टावक्र’ का मतलब है ‘वह इंसान जिसके शरीर में आठ अलग-अलग तरह की विकृतियां हो’। ये विकृतियां उनके पिता के श्राप के कारण उन्हें मिली थीं।
जब अष्टावक्र अपनी माता के गर्भ में थे, तभी उनके पिता कहोल, जो खुद एक प्रसिद्ध विद्वान और ऋषि थे, ने उनको कई तरह की शिक्षाएं दीं।
अष्टावक्र ने गर्भ में ही ये सारी शिक्षाएं पा ली थीं और जन्म लेने से पहले ही मां की कोख में उन्होंने आत्म के विभिन्न पहलुओं पर जबर्दस्त महारत हासिल कर ली थी।
एक दिन शिक्षा देते समय कहोल ने एक गलती कर दी। अजन्मे बच्चे अष्टावक्र ने अपनी मां की कोख से ‘हूं’ कहा। उसका आशय था कि कहोल की बात गलत है और वह जो कह रहे थे, वह सही नहीं है। दुर्भाग्य से उसके पिता अपना आपा खो बैठे और बच्चे को आठ अंगों से विकलांग होने का श्राप दे दिया। इसलिए बच्चा शारीरिक रूप से विकलांग पैदा हुआ – उसके दोनों पैर, दोनों हाथ, घुटने, छाती और गर्दन टेढ़े थे।
बाद में जब अष्टावक्र थोड़े बड़े हुए, तो वह अपने पिता के साथ एक शास्त्रार्थ में गए, जिसका आयोजन वहां के राजा जनक ने किया था। जनक महान प्रतिभाशाली और असाधारण व्यक्ति थे।
राजा जनक ने अष्टावक्र की ओर देखा – टेढ़े-मेढे शरीर वाला यह युवक इस तरह बोल रहा था – और बोले, ‘क्या तुमने अभी जो कहा, उसे सही साबित कर सकते हो? अगर नहीं, तो तुम अपना यह विकलांग शरीर भी खो बैठोगे।’
वह राजा होते हुए भी एक सच्चे साधक थे। वह आत्मज्ञान पाने के लिए आतुर थे। आत्मज्ञान पाने की उनकी चाह इतनी जबर्दस्त थी कि उन्होंने अपने राज्य के सभी आध्यात्मिक व्यक्तियों को अपने दरबार में इकट्ठा कर लिया था। वह उनका स्वागत करते थे, उन्हें सम्मान देते थे और उनकी जीविका तथा रहन-सहन की व्यवस्था करते थे। उन्हें आशा थी कि ये लोग उन्हें राह दिखा सकते हैं।
वह हर दिन अपने सांसारिक कामों को फटाफट निबटाकर घंटों इन लोगों का उपदेश सुनते थे, चर्चा और वाद-विवाद आयोजित करते थे ताकि वह आत्मज्ञान की राह को जान सकें। अलग-अलग आध्यात्मिक धर्मग्रंथों का अध्ययन कर चुके कई विद्वान साथ बैठकर महान शास्त्रार्थ करते थे, जो कई दिनों, सप्ताहों और महीनों तक चलता था। आम तौर पर बहस में जीतने वाले को एक बड़ा पुरस्कार मिलता था। उसे ढेर सारा धन मिलता था या राज्य में किसी ऊंची पदवी पर बिठाया जाता था। ये लोग आम लोग नहीं थे। राजा ने महान आध्यात्मिक लोगों को इकट्ठा किया था मगर कोई उन्हें आत्मज्ञान नहीं दिला पाया था।
राजा जनक ने अष्टावक्र की आज्ञा का पालन करके आत्म ज्ञान पाया
ऐसे ही एक शास्त्रार्थ में कहोल को आमंत्रित किया गया था, जिसमें वह अष्टावक्र के साथ गए थे। शास्त्रार्थ शुरू हुआ और वहां मौजूद सर्वश्रेष्ठ विद्वानों के बीच तर्क-वितर्क होने लगा। कई बौद्धिक प्रश्न उठाए गए और धर्मग्रंथों की गूढ़ बातों पर विचार-विमर्श हो रहा था, तब अचानक अष्टावक्र उठ कर खड़े हुए और बोले, ‘ये सब खोखली बातें हैं। इनमें से कोई आत्म के बारे में कुछ नहीं जानता। ये सब उसके बारे में बातें जरूर कर रहे हैं, मगर मेरे पिता समेत यहां मौजूद कोई भी व्यक्ति आत्म के बारे में कुछ नहीं जानता।’
राजा जनक ने अष्टावक्र की ओर देखा – टेढ़े-मेढे शरीर वाला यह युवक इस तरह बोल रहा था – और बोले, ‘क्या तुमने अभी जो कहा, उसे सही साबित कर सकते हो? अगर नहीं, तो तुम अपना यह विकलांग शरीर भी खो बैठोगे।’
अष्टावक्र ने जवाब दिया, ‘हां, मैं साबित कर सकता हूं।’
‘फिर तुम्हारे पास हमें देने के लिए क्या है?’ जनक ने पूछा।
अष्टावक्र ने कहा, ‘अगर आप इसे पाना चाहते हैं, तो आपको अंतिम हद तक मेरी बात मानने के लिए तैयार रहना होगा। तभी मैं आपको यह दे सकता हूं। अगर आप वही करें, जो मैं आपको करने के लिए कहूं, तो मैं ये पक्का करूंगा कि आप आत्म को जान जाएँ।’
जनक को अष्टावक्र का सीधी बात करना पसंद आया और उन्होंने कहा, ‘मुझे कुछ भी कहो, मैं करने के लिए तैयार हूं।’ वह सिर्फ बोल नहीं रहे थे। वह वाकई इस बात पर गंभीर थे।
अष्टावक्र बोले, ‘मैं जंगल में रहता हूं। वहां आइए, फिर देखेंगे कि हम क्या कर सकते हैं।’ और वह वहां से चले गए।
कुछ दिन बाद, जनक अष्टावक्र की तलाश में जंगल में गए। जब कोई राजा कहीं जाता है, तो वह हमेशा सिपाहियों और मंत्रियों की फौज के साथ जाता है। जनक अपने लाव-लश्कर के साथ जंगल के लिए चले। लेकिन जब वे जंगल में घुसे, तो आगे-आगे जंगल और घना होता गया। धीरे-धीरे कई घंटों की खोज के बाद जनक अपने बाकी लोगों से अलग होकर रास्ता भटक गए। जब वह जंगल में रास्ता खोजते हुए भटक रहे थे, तो अचानक से उन्हें पेड़ के नीचे बैठे हुए अष्टावक्र दिख गए।
अष्टावक्र को देखते ही, जनक घोड़े से नीचे उतरने लगे। उनका एक पांव रकाब पर था और दूसरा हवा में, तभी अष्टावक्र बोले, ‘रुको! वहीं रुको!’ जनक उसी असुविधाजनक स्थिति में ठहर गए। वह घोड़े के ऊपर झूल रहे थे और उनका एक पैर हवा में था।
वह उस अजीबोगरीब स्थिति में पता नहीं कितनी देर रुके रहे। हमें नहीं पता वे कितनी देर रुके रहे। कुछ कथाओं में कहा गया है कि वह कई सालों तक वैसे ही रुके रहे, कुछ कहते हैं कि वह सिर्फ एक पल था। समय की अवधि मायने नहीं रखती। वह अच्छे-खासे समय तक उसी स्थिति में खड़े रहे। अच्छा-खासा समय एक पल भी हो सकता है। निर्देश का पालन करने की उस पूर्णता के कारण वह पूर्ण आत्मज्ञानी हो गए। वह उसी जगह रुक गए, जहां उन्हें रुकना था।
आत्मज्ञान पाने के बाद जनक घोड़े से उतरे और अष्टावक्र के पैरों पर गिर पड़े। वह अष्टावक्र से बोले, ‘मैं अपने राज्य और महल का क्या करूं? अब मेरे लिए ये चीजें कोई अहमियत नहीं रखतीं।
अष्टावक्र को देखते ही, जनक घोड़े से नीचे उतरने लगे। उनका एक पांव रकाब पर था और दूसरा हवा में, तभी अष्टावक्र बोले, ‘रुको! वहीं रुको!’ जनक उसी असुविधाजनक स्थिति में ठहर गए। वह घोड़े के ऊपर झूल रहे थे और उनका एक पैर हवा में था। वह उस अजीबोगरीब स्थिति में पता नहीं कितनी देर रुके रहे।
मैं बस आपके चरणों में बैठना चाहता हूं। कृपया मुझे यहीं अपने आश्रम में अपने साथ रहने दें।’
मगर अष्टावक्र ने जवाब दिया, ‘अब जब आपने आत्म-ज्ञान पा लिया है तो आपका जीवन आपकी पसंद- नापसंद से जुड़ा नहीं रह गया है। अब आपका जीवन आपकी जरूरतों के बारे में नहीं है क्योंकि वास्तव में अब आपकी कोई जरूरत ही नहीं है। आपकी जनता को हक है कि उन्हें एक आत्मज्ञानी राजा मिले। आपको उनका राजा बने रहना चाहिए।’
जनक अनिच्छा से महल में ही रहे और बहुत अच्छी तरह अपना राज-पाट चलाया।
जनक अपनी जनता के लिए एक वरदान थे क्योंकि वह एक पूर्ण आत्मज्ञानी व्यक्ति होते हुए भी राजा का कर्तव्य निभा रहे थे। भारत में कई साधु-संत पहले राजा और सम्राट थे, जिन्होंने अपनी इच्छा से सब कुछ छोड़ दिया और बहुत गरिमा के साथ भिक्षुकों की तरह रहने लगे। गौतम बुद्ध, महावीर, बाहुबली – ऐसे बहुत से लोग हुए हैं। मगर एक आत्मज्ञानी राजा होना दुर्लभ चीज थी। जनक राजा बने रहे मगर राजकाज की जिम्मेदारियों से उन्हें जितनी बार थोड़ी फुर्सत मिलती, वह अष्टावक्र से मिलने उनके आश्रम चले जाते थे।
आश्रम में अष्टावक्र ने कुछ भिक्षुओं को जमा किया था, जिन्हें वह शिक्षा देते थे। ये सभी भिक्षु धीरे-धीरे जनक से चिढ़ने लगे क्योंकि जब भी जनक आते, अष्टावक्र सब कुछ छोड़कर उनके साथ ढेर सारा समय बिताते क्योंकि दोनों के बीच बहुत अच्छा तालमेल था। जैसे ही जनक आते, दोनों खिल उठते। जिन भिक्षुओं को अष्टावक्र शिक्षा दे रहे थे, उनके साथ वह उस तरह नहीं चमकते थे। इससे भिक्षु बहुत नाराज रहते थे।
भिक्षु एक-दूसरे के कान में फुसफुसाते, ‘हमारे गुरु ऐसे आदमी के हाथों क्यों बिक गए हैं? लगता है कि हमारे गुरु भ्रष्ट हो रहे हैं। यह आदमी एक राजा है, महल में रहता है। उसकी ढेर सारी पत्नियां और ढेर सारे बच्चे हैं। उसके पास बहुत धन-दौलत है। उसके चलने का अंदाज देखो। वह राजा की तरह चलता है। और उसके कपड़े देखो। उसके आभूषण देखो। उसके अंदर कौन सी चीज आध्यात्मिक है कि हमारे गुरु उस पर इतना ध्यान देते हैं? यहां हम अपनी आध्यात्मिक प्रक्रिया के लिए पूरी तरह समर्पित हैं। हम भिक्षु के रूप में उनके पास आए हैं, मगर वह हमें अनदेखा कर रहे हैं।’
अष्टावक्र जानते थे कि उनके शिष्यों में यह भावना बढ़ रही है। इसलिए एक दिन उन्होंने एक योजना बनाई। वह एक कक्ष में भिक्षुओं के साथ बैठे उन्हें उपदेश दे रहे थे, वहां राजा जनक भी मौजूद थे। जब प्रवचन चल रहा था, तभी एक सिपाही दौड़ते हुए कमरे में आया। वह जनक के आगे झुका, मगर अष्टावक्र के सामने नहीं और बोला, ‘महाराज, महल में आग लग गई है। सब कुछ जल रहा है। पूरे राज्य में हंगामा मचा हुआ है।’
जनक खड़े होकर सिपाही पर चिल्लाए, ‘निकलो यहां से। यहां आकर सत्संग में बाधा डालने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई और तुम्हारी इतनी मजाल कि तुमने मुझे प्रणाम किया और मेरे गुरु को नहीं! तुरंत यहां से निकल जाओ।’ सिपाही कमरे से भाग गया। जनक फिर बैठ गए और अष्टावक्र ने प्रवचन देना जारी रखा।
कुछ दिन बाद, अष्टावक्र ने एक और काम किया। सभी लोग फिर से हॉल में बैठे हुए थे और अष्टावक्र प्रवचन दे रहे थे। प्रवचन के बीच में ही आश्रम का एक सहायक दौड़ते हुए कमरे में आया और बोला, ‘बंदरों ने सूख रहे सभी कपड़े उतार लिए हैं और भिक्षुओं के कपड़े फाड़ रहे हैं।’
सभी भिक्षु तुरंत उठकर अपने कपड़ों को बचाने भागे। वे नहीं चाहते थे कि बंदर उनके कपड़े खराब कर दें। मगर जब वे कपड़े सुखाने वाली जगह पहुंचे, तो वहां कोई बंदर नहीं था और उनकी लंगोटें अभी भी वहां लटक रही थीं। उन्हें बात समझ में आ गई। वे सिर झुकाकर वापस आ गए।
त्याग और आध्यात्मिकता का बाहरी कामों से कोई लेना देना नहीं है
फिर अष्टावक्र ने अपने प्रवचन के दौरान समझाया, ‘यह देखो। यह आदमी राजा है। कुछ दिन पहले उसका महल जल रहा था। पूरा राज्य तहस-नहस हो रहा था। इतनी दौलत जल रही थी, मगर उन्हें चिंता इस बात की थी कि उनके सिपाही ने सत्संग में बाधा डाल दी थी। तुम लोग भिक्षु हो। तुम्हारे पास कुछ नहीं है। तुम्हारे पास महल नहीं है,पत्नी नहीं है बच्चे नहीं हैं, तुम्हारे पास कुछ नहीं है। लेकिन जब बंदरों ने आकर तुम्हारे कपड़े उठाए, तो तुम लोग उसे बचाने के लिए भागे। तुम लोग ऐसे कपड़े पहनते हो, जिसका ज्यादातर लोग पोंछा तक नहीं बनाएंगे। मगर उस लंगोट के लिए भी तुम लोग मेरी बातों पर ध्यान दिए बिना उन बेकार कपड़ों को बचाने के लिए भागे। कहां है तुम्हारा आत्मत्याग? वह असली आत्मत्यागी हैं। वह राजा होते हुए भी त्यागी हैं। तुम लोग भिक्षु हो। दूसरों की त्यागी हुई चीजों का प्रयोग करते हो, मगर तुम्हारे अंदर आत्मत्याग की कोई भावना नहीं है। देखो तुम कहां हो और वह कहां हैं।’
एक व्यक्ति अपने अंदर कैसा है, उसका इस बात से कोई संबंध नहीं है कि वह बाहरी तौर पर कैसा है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कोई व्यक्ति अपने भीतर कैसा है। बाहरी दुनिया के साथ आप क्या करते हैं, ये सामाजिक चीजें होती हैं। आप जिन स्थितियों में रहते हैं, उनके अनुरूप खुद को संचालित करते हैं। उसका सामाजिक महत्व है मगर कोई अस्तित्व संबंधी या आध्यात्मिक महत्व नहीं है। आप अपने अंदर कैसे हैं, बस यही बात मायने रखती है।