सेवागाथा – वैदिक परंपराओं का पुनर्जागरण सुरभि शोध संस्थान (वाराणसी)

28 Jul 2021 13:29:20

 


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    -  रश्मि दाधीच  

त्रिपुरा के बालक मुक्ति की बांसुरी की धुन व नेपाल की आशा के ढोलक की थाप पर कृष्ण भजन, सुनकर मन भाव विभोर सा हो गया. पूर्वोत्तर राज्यों के इन बच्चों को, हिंदी भाषा में गीत गाते बजाते देख मैं ही नहीं मेरे संग गौशाला की गायें भी मानो झूम रहीं थी. बात करते हैं वाराणसी की, भौतिकता की ओर अग्रसर वर्तमान आधुनिक समाज में विलुप्त होती शिक्षा पद्धति, कृषि पद्धतियां एवं वैदिक परंपराओं का, पुनर्जागरण है, यहां का “सुरभि शोध संस्थान”.

सादा जीवन उच्च विचार को सार्थक करते संघ के स्वयंसेवक सूर्यकांत जालान जी की प्रेरणा से इस प्रकल्प का आरंभ 1992 में निर्जीव पड़ी गौशालाओं में, कुछ गायों और कसाई से छुड़ाए गए अनुपयोगी गोवंश को आश्रय दे, उनकी सेवा करने से हुआ. समय के साथ इसे शिक्षा से जोड़ा गया.

सन् 2000 में स्वावलंबी गौशाला में बने छात्रावास को पूर्वोत्तर राज्यों के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से वनवासी जनजातियों के, 22 लड़कों से शुरू किया गया. आज छात्रावास में दुर्गम पूर्वोत्तर के 600 विद्यार्थी निःशुल्क आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ संगीत, पाक कला, जैविक कृषि, गोपालन, कृषि विज्ञान, जल, भूमि व पर्यावरण संरक्षण, जैसे मूलभूत विषयों पर जीवन उपयोगी शिक्षा ही प्राप्त नहीं कर रहे, अपितु आतंकवाद, नक्सलवाद से कोसों दूर, विभिन्न संस्कृतियों सभ्यताओं के बीच समरसता और सामंजस्य स्थापित कर रहे हैं.

यहीं से निकले सोनम भूटिया सिक्किम यूनिवर्सिटी के जनरल सेक्रेटरी रहे जो एम.फिल कर रहे हैं. वहीं यहां के कुछ बच्चे सिक्किम व नागालैंड में हिंदी पढ़ा रहे हैं. जालान जी गर्व से बताते हैं – यहां से पढ़कर निकले नारबु लेप्चा सिक्किम में वन मंत्री के सेक्रेटरी हैं. नियमित होने वाली संगीत कक्षाओं से सीखकर सिक्किम के सच्कुम अल लेप्चा अपना यूट्यूब चैनल सफलतापूर्वक चला रहे हैं.

छात्रावास का कार्यभार देख रहे संघ के पूर्व प्रचारक रहे हरीश भाई बताते हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण यहां अनेक बच्चे कृषक परिवार से, कुछ अनाथ एवं कुछ सिंगल पेरेंटिंग के अनुभव से गुजर कर आए हैं. तीसरी चौथी कक्षा से आए बच्चों के लिए संस्था ही उनका परिवार है. उच्च शिक्षा तक इनकी पूरी सहायता की जाती है.

संस्थान के परिसर में स्थित चार छात्रावासों में करीब 424 लड़के व एक में करीब 178 लड़कियां रहती हैं. आत्मनिर्भरता के बीज बोता यह केंद्र बच्चों में हिंदी भाषी होने का गर्व और सुनहरे भविष्य के सपने जगा रहा है.

हर घर बने आत्मनिर्भर और प्रत्येक व्यक्ति मेहनत और अपने पुरुषार्थ से अपनी व्यवस्थाएं जुटाएं, इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए संस्थान के अंतर्गत विभिन्न आयामों को चलाया गया. गोशाला के सम्पर्क से गांव वालों की समस्याएं – जिनमें बंजर भूमि, पानी की कमी, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि की कठिनाई इत्यादि सामने आने लगी. कई महीनों तक प्राचीन पद्धति को ध्यान में रखते हुए बंजर जमीन को गोमूत्र और गोबर द्वारा पोषित कर, पहाड़ों से आते वर्षा के पानी को संरक्षित करने के लिए जगह-जगह छोटे तालाब, बांध, नालों का निर्माण कर, जल संरक्षण को बढ़ावा दिया गया. परिणामतः बंजर भूमि पर हरियाली लहराने लगी और गांवों में ऑर्गेनिक खेती, नर्सरी, वृक्षारोपण को बढ़ावा मिला. गौपालन से लेकर कृषि के अनेक क्षेत्रों में रोजगार की संभावनाएं बढ़ी. शिक्षा के लिए विभिन्न क्षेत्रों में माध्यमिक व उच्च माध्यमिक विद्यालय खोले गए.

संस्था के प्रधान कार्यकर्ता जटाशंकर जी बताते हैं – घटती पैदावार से उदासीन किसानों को उन्नत फसलों के लिए शिक्षित कर, लुप्त होती सब्जियों, फलों और वनस्पति को संरक्षित किया गया. मात्र, तपोवन शाखा में ही आज करीब 60000 पेड़ पौधे हैं, जहां 25 प्रकार के फल और सब्जियां, 20 प्रकार की जड़ी बूटियां, गायों के चारे, मसाले इत्यादि का उत्पादन हो रहा है. अपने हाथों से काम करना, पेड़ पौधे लगाना, गो सेवा करना, छात्रावास के बच्चों को स्वतः ही प्रकृति प्रेमी बना देता है.

शहरी हो या ग्रामीण क्षेत्र वर्तमान समय में रोटी की कहीं कमी नहीं है, पर नारी का सम्मान, मासूम बच्चों की छोटी-छोटी इच्छाएं, गृहणी को तड़पा देती है. उस पर घरेलू हिंसा, पति में नशे की लत, घर में विवाद पैदा करती है. 6 वर्षो से यहां काम करती, सविता मौर्या आत्मविश्वास से बताती है – लॉकडाउन में भी हमारा हाथ मशीनों पर रुका नहीं, अब घर में इज्जत और बच्चों की खुशियां दोनों हमारे हाथ में है. राजलक्ष्मी, दुर्गा, आशा जैसी करीब 500 महिलाएं आज निःशुल्क सिलाई का प्रशिक्षण लेकर यहीं से पैसे भी कमा रही हैं. संस्थान में पापड़, आचार, मसाले, मुरब्बा, गुलकंद जैसे कुटीर उद्योगों से आत्मनिर्भर बनती ग्रामीण महिलाओं का भी जीवन स्तर सुधरा है.

ग्रामीण परिवेश में प्रति 28 दिन से संस्था द्वारा डगमगपुर और मिर्जापुर प्रकल्प में निःशुल्क स्वास्थ्य सेवा शिविर लगाए जाते हैं. जहां डॉ. एस के पोद्दार जैसे कई डॉक्टर अपना समय देकर स्वास्थ्य और मिर्गी जागरूकता अभियान में एक बड़ा बदलाव लेकर आए हैं. निःशुल्क चिकित्सा से करीब 5000 लोगों को अब तक लाभ मिल चुका है और प्रत्येक शिविर में कम से कम 1100 लोग लाभ उठा रहे हैं.

भारतीय संस्कृति के अनुसार गाय में समस्त देवता विराजमान हैं, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण है ये प्रकल्प, जो गौशाला से शुरू किया गया व आज विभिन्न क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन की मिसाल बन रहा है.

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