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रमेश शर्मा-
इतिहास की पुस्तकों में इस संघर्ष की गाथा का सबसे कम विवरण मिलता है। यह अंग्रेजों के विरुद्ध एक सशस्त्र गुरिल्ला युद्ध था। जो छोटा नागपुर क्षेत्र में हुआ जिसे अंग्रेजों ने अपने दस्तावेज में डकैतों और अपराधियों का उत्पात लिखा। लेकिन इतिहासकारों की राय अलग है। उन्होंने इसे भूमिज क्राँति कहा। कहीं-कहीं चुआड़ विद्रोह भी लिखा। यह संघर्ष ऐसे पीडितों ने आरंभ किया था जिनसे उनकी भूमि का स्वामित्व छीनकर केवल श्रमिक बना दिया गया था। इसकी नीव मुगलकाल में पड़ गई थी। स्वाभिमान और स्वत्व का यह संघर्ष मुगल काल से आरंभ होकर अंग्रेजी काल तक चल। यह संघर्ष 1767 से आरंभ हुआ और 1833 तक चला।
अंतिम एक वर्ष का युद्ध तो क्राँतिकारियों ने तोपखाने के साथ भी किया था। इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इस संघर्ष में कितने लोगों का बलिदान हुआ होंगा। अलग-अलग समय हुये इस संघर्ष के नायक भी अलग-अलग रहे । एक नायक का बलिदान हुआ तो दूसरे ने कमान संभाली। इस संघर्ष के अंतिम नायक थे वीर गंगा नारायण सिंह । जिन्हे 7 फरवरी 1833 को तोप से उड़ाया गया।
भारत के भूमि पुत्रों द्वारा किये गये इस संघर्ष की नींव बादशाह शाह आलम के समय 1765 में पड़ी थी। शाह आलम ने इस वर्ष ईस्ट इंडिया कंपनी से एक समझौता किया था। इतिहास में इस समझौतै को "इलाहाबाद संधि" के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अंतर्गत मुघल बादशाह ने ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल की दीवानी सौंप दी थी।
तब झारखंड और बिहार और उड़ीसा भी बंगाल का अंग हुआ करता था। और छोटा नागपुर क्षेत्र इसी के अंतर्गत था। बंगाल की दीवानी मिलते ही अंग्रेजों ने वनवासियों और नागरिकों का शोषण शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने नमक कर, दरोगा प्रथा, जमीन बिक्री कानून इस पर टैक्स आदि लगाना आरंभ कर दिये। इसके कृषि पर वार्षिक बसूली दर भी बढ़ा दी । अंग्रेज यहीं तक नहीं रुके।
उन्होंने इस क्षेत्र में बादशाहत के अंतर्गत छोटी रियासतों में उत्तराधिकार नियुक्तियों में भी हस्तक्षेप आरंभ कर दिया। अंग्रेज रियासत का उत्तराधिकार उसी को देते जिसे वे अपना वफादार समझते थे । इन रियासतों में अंग्रेजों ने अपने एजेंट भी नियुक्त किये ताकि रियासत पर निगरानी रहे और समाज के शोषण पर स्थानीय शासक मूक दर्शक की भाँति देखता ही रहे।
अंग्रेजों के इस हस्तक्षेप और बसूलियाँ के विरुद्ध असंतोष फैला। यह असंतोष रियासतों में भी और समाज में भी। कुछ रियासतों ने और समाज ने तो परिस्थित से समझौता करके शीश झुका लिया पर सभी ऐसा न कर सके। प्रतिकार की अग्नि प्रज्वलित हो गई और दो साल बाद संघर्ष आरंभ हो गया। इसकी कमान संभाली छोटा नागपुर क्षेत्र की सबसे प्रभावशाली रियासत "बड़ाभूम" रियासत ने। इसे वराह भूमि और खरसावां नाम से भी जाना जाता है।
यहाँ के राजा विवेक नारायण सिंह की दो रानियां थी। दोनों के एक एक पुत्र उत्पन्न हुये। रीति के अनुसार बड़ी रानी के बेटा उत्तराधिकारी होता था। इसके अनुसार बड़ी रानी के बेटा लक्ष्मण सिंह उत्तराधिकारी था। पर लक्ष्मण सिंह का स्वभाव प्रजा के प्रति सद्भाव वाला था जो अंग्रेजों को पसंद न था । राजा के मरने के बाद अंग्रेजों ने छोटी रानी के बेटे रघुनाथ नारायण सिंह से संपर्क किया और सेना भेजकर गद्दी पर बिठा दिया। और बड़ी रानी का बेटे लक्ष्मण सिंह को निष्कासित कर दिया।
उन्हे रियासत क्षेत्र से बाहर जंगल में कुछ जमीन निर्वाह के लिये दे दी । पर जनता का सद्भाव उनके साथ था । उन्होंने लोगों को संगठित किया । और अंग्रेजों मनमानी बसूली के विरुद्ध अभियान छेड़ा। उनका तर्क था कि यदि फसल खराव है तो कैसे लगान दी जा सकती है । उनकी बातों ने समाज को संगठित किया पर अंग्रेजों ने इसे विद्रोह माना। अंग्रेजों ने उन्हे पकड़ कर जेल में डाल दिया । और जेल में ही उनकी मृत्यु हुई । वीर गंगा नारायण सिंह उन्ही के बेटे थे । उन्होंने संघर्ष को आगे बढ़ाया और एक सशस्त्र टोली गठित की । उन्होंने अपनी मातृ भूमि को अंग्रेजों से मुक्त कराने का अभियान छेड़ा तथा समाज से अंग्रेजों को किसी भी प्रकार का कर न देने का आव्हान किया।
अंत में 1832 में अंग्रेजों ने वैरकपुर छावनी से तोपखाने के साथ सेना भेजी। यह युद्ध लगभग साल भर तक चला। अंत में जैसा हर युद्ध में हुआ। अंग्रेजों ने विश्वासघाती तैयार किये और क्राँतिकारियों की टोली में भेज दिये । इससे अंग्रेजों को क्राँतिकारियों की गतिविधियों के समाचार मिलने लगे । इसके आधार पर छै और सात फरवरी की रात में पूरी टोली को घेर लिया।
अनुमान है कि टोली के भीतर मौजूद विश्वासघाती स्वयं ऐसी जगह ले गये जहाँ पहले से पुलिस और सेना की जमावट हो। क्राँतिकारियों की टोल चारों ओर से घिर गई। वह सात फरवरी 1833 की सुबह थी वहां जितने लोग़ थे सबके निर्जीव शव बिखरे पड़े थे। दो दिन पहले जिस टोली ने सुरक्षित स्थान समझकर अपना ठिकाना बनाया था वहाँ उनमें कोई जिन्दा न बचा।
दिन में वीर गंगा नारायण सिंह को तोप से उड़ाया गया। संघर्ष के इस एक वर्ष में कितने वीर बलिदान हुये, कितने गाँवों में आग लगाकर लोगों को जिन्दा जला कर मार डाला गया इसका हिसाब आज किसी के पास नहीं। वस इतना लिखा है कि "डकैतों की तलाश के लिये गांवो में आग लगाई गई"। शत शत नमन उन वीरों को।