महिमा तारे-
छत्रपति शिवाजी महाराज को समझने के लिए उनके स्वराज, सुराज और रणनीतिक कौशल को समझना होगा और तभी हम उनके संपूर्ण व्यक्तित्व को समझ सकते हैं और कह सकते हैं शिवाजी यानी स्वराज शिवाजी, यानी सुराज शिवाजी, यानी एक कार्यशैली।
शिवाजी महाराज ने स्वराज के माध्यम से हिंदुओं के सोएं हुए स्वाभिमान को जागृत किया और उन्हें हिंदू होने पर गर्व करना सिखाया। उन्होंने स्वभाषा, स्वभूषा और स्व संस्कृति पर हिंदुओं को गर्व करना सिखाया।
हिन्दुओं की आत्मविस्मृति को सबसे पहले शिवाजी ने ही जागृत किया। जिसकी प्रेरणा उन्हें अपनी मां जीजाबाई, पिता शाहजी व दादा कोंडदेव से प्राप्त हुई थी।स्वराज के माध्यम से ही उन्होंने हर एक भारतीय के मन में राष्ट्रीयता का भाव जागृत किया। तभी तो विदेशी इतिहासकार ग्राउंड डफ लिखता है कि "शिवाजी द्वारा जीती हुई भूमि और संपत्ति का मुगलों पर विशेष प्रभाव नहीं हुआ किंतु उन्होंने महाराष्ट्र के लोगों के मन में स्वराज की जो प्रेरणा जगाई वह मुगलों पर भारी पड़ी"।
स्वराज की इसी भावना के साथ उन्होंने 400 वर्ष पहले आत्मनिर्भर भारत का सपना भी देखा था। इसका उदाहरण है जब अंग्रेजों से शिवाजी ने तोप बनाने की विधि मांगी तो अंग्रेजो ने विधि बताने में आनाकानी की। इस पर शिवाजी ने फ्रांस से समझौता कर पुरंदर के किले में तोपों का कारखाना लगवाया। इस तरह विदेशों से तोपे न मंगवाते हुए। पीतल और मिश्रित धातुओं से स्वदेश में ही उत्कृष्ट तोपों का निर्माण करवाया।
वही स्वदेशी जल पोतो के निर्माण के लिए उन्होंने कल्याण और भिवंडी में कारखाने लगवाए।
राजकाज में स्व भाषा का प्रयोग हो इसके लिए उन्होंने कई फारसी शब्द का संस्कृत या मराठी में प्रयोग करना चालू किया। जैसे आदिल को न्यायाधीश कहना और लिखना शुरू किया। इसी तरह साहब की जगह स्वामी, पेशवा को प्रधान ऐसे लगभग 1400 शब्दों को बदलकर उनका संस्कृत या मराठी में उपयोग चालू किया। उनका मानना था कि भाषा अपने साथ सोच और संस्कृति भी लाती है।
शिवाजी के जीवन का अध्ययन करने वाले कहते हैं कि शिवाजी का सार्वजनिक जीवन 36 वर्षों का रहा। जिसमें 6 वर्ष का समय उन्होंने युद्ध भूमि में व्यतीत किया। और शेष 30 वर्ष उन्होंने अपने राज्य में दुर्गों का निर्माण करवा करवाया और शासन की सुव्यवस्थित योजना बनाने में व्यतीत किया।उन्होंने तीन सौ से अधिक दुर्गों का निर्माण करवाया। इसीलिए उन्हें दुर्ग राज भी कहा जाता है। शासन चलाने के लिए उन्होंने 22 राजाज्ञाएं जारी की। जिन्हें राम चंद्र पंत ने आज्ञा पत्रों के रूप में जारी किया।
इन 22 आज्ञा पत्रों में बताया गया कि शासन चलाने वाले का स्व अनुशासन कैसा हो, विदेशी व्यापारी के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। रिश्तेदारों से शासन प्रमुख को कितनी दूरियां रखनी चाहिए। मंत्रियों और सहयोगियों से कैसा व्यवहार करना चाहिए। इसका विस्तृत वर्णन इन आज्ञा पत्रों में किया गया है। वही शिवाजी ने संपूर्ण राज्य संचालन के लिए जिन अधिकारियों को नियुक्त किया। वे "अष्ट प्रधान " के नाम से जाने गए। इसी का परिणाम था कि शिवाजी की मृत्यु के बाद भी औरंगजेब दक्षिण पर विजय नहीं नहीं कर पाया। 1680 में शिवाजी के जाने के बाद भी 27 वर्षों तक स्वराज को नहीं जीत पाया और सन 1707 में दक्षिण में ही उसकी मृत्यु हुई।इसका कारण था स्व संचालित और स्व नियंत्रित कार्यपद्धती।
शिवाजी महाराज जनसंवाद को सुशासन का आधार मानते थे।इस पर मुगल इतिहासकार लिखता है कि "शिवाजी कुंए पर पानी भरने आई महिलाओं से वैसे ही संवाद करते थे जैसे हम अपने घरों के माता बहनों से करते हैं।"
यहां पर दो उदाहरणों के माध्यम से हम शिवाजी के रणनीति कौशल और न्याय प्रियता को समझ सकते है।
अफजल खान से भेंट से पूर्व शिवाजी ने सारी परिस्थितियों का आकलन किया। आवश्यक कार्य योजना बनाई और युद्ध के लिए प्रस्थान करने से पूर्व अपने सभी सहयोगी और विभिन्न मोर्चों पर डटे हुए हर सैनिक तक यह बात पहुंचाई की गत रात्रि मां भवानी ने स्वप्न में आकर उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा है कि आज तुम्हारी विजय निश्चित है। इस तरह 30, 35 हजार कि अफजल खान की सेना के सामने युद्ध के लिए तैयार खड़े अपने 15, 20 हजार सैनिकों के मन में उन्होंने यह आस्था खड़ी कर दी कि उनकी आज विजय ही विजय है।
उनकी न्याय प्रियता को समझने के लिए एक ही उदाहरण काफी है। कान्होजी जेधे स्वराज के वरिष्ठ व्यक्ति थे। वे शिवाजी के पिता के साथी भी थे। शिवाजी उनका सम्मान करते थे। कान्होजी जेधे का रिश्तेदार खंडोजी खोपड़ा पर अफजल खान से मिलने और स्वराज की जानकारी देने का आरोप था। जब युद्ध खत्म हुआ तो खंडोजी पर राष्ट्रद्रोह का आरोप सिद्ध हुआ।तब राष्ट्रयद्रोह की सजा केवल मृत्यु थी।
चूँकि खंडोजी, कान्होजी के रिश्तेदार थे। इसलिए उन्होंने शिवाजी से खंडोली को मृत्युदंड न देने की प्रार्थना की। शिवाजी ने तब तो अपने वरिष्ठ सहयोगी का मान रख लिया और खंडोजी को मृत्युदंड नहीं दिया। पर वह बेचैन रहे कि राष्ट्रद्रोही को उन्होंने कोई सजा नहीं दी। पर कुछ दिनों बाद उन्होंने उसके बाएं पैर और दाहिनें हाथ को कटवाने का आदेश दिया।
इस पर कान्होजी ने शिवाजी से प्रश्न किया कि आपने वचन भंग किया। इस पर शिवाजी का उत्तर था की यदि उन्होंने कोई सजा नहीं दी होती तो राज्य में यह संदेशा जाता कि देशद्रोह परिचय से बड़ा है और यह स्वराज के लिए ठीक नहीं था। आपने मृत्युदंड के लिए मना किया था। मैंने आपकी आज्ञा का पालन किया।
शिवाजी महाराज की इन्हीं विशेषताओं को लेकर स्वामी समर्थ ने अपनी कविता के माध्यम से शिवाजी को अनेक उपमाएं दी है।
"यशवंत, कीर्तिवर्धन, वरदवंत।
पुण्यवंत,नीतिवंत,जाणता राजा।"
छत्रपति शिवाजी महाराज स्वराज के जन्मदाता रहे। उनके अवसान के बाद भी सन 1680 से सन 1857 तक स्वराज का विचार लोगों के मन में रहा और यही विचार 1857 की क्रांति का आधार बना और हमने संघर्ष करते हुए 1947 में संपूर्ण स्वाधीनता प्राप्त की।