क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की जयंती।

आजाद और भगतसिंह की भेंट कराने वाले विद्यार्थी राष्ट्र और संस्कृति को मानते थे सर्वोपरि।

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    25-Oct-2024
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ganesh shankar vidhyarthi
 
 
रमेश शर्मा - 
 
 
सार्वजनिक जीवन या पत्रकारिता में ऐसे नाम विरले हैं जिनका व्यक्तित्व व्यापक है और जो विभिन्न विचारों के बीच समन्वय बिठाकर देश सेवा में लगे। क्राँतिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी थे, उनके जीवन में भी और जीवन के बाद भी सब उन्हें अपना मानते हैं। वे स्वतंत्रता के लिये अहिसंक आँदोलन में जहाँ स्वयं सक्रिय रहे वहीं उन्होंने क्राँतिकारी आँदोलनकारियों के अज्ञातवास की व्यवस्था भी की। विद्यार्थी जी पाँच बार जेल गये, वे राष्ट्र के लिये सामाजिक और साम्प्रदायिक एकता आवश्यक मानते थे और कहते थे कि राष्ट्र का आधार समन्वय और सद्भाव तो है लेकिन राष्ट्र संस्कृति सर्वोपरि होना चाहिए। वे सदैव इसी अभियान में लगे रहे और इसी अभियान में बलिदान भी हुआ।
 
 
गणेश शंकर विद्यार्थी जी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज के अतरसुइया मोहल्ले में हुआ था। प्रयागराज का नाम उन दिनो इलाहाबाद हुआ करता था। उनके पिता जयनारायण श्रीवास्तव यद्यपि उत्तर प्रदेश में फतेहपुर के निवासी थे लेकिन मध्यप्रदेश के मुंगावली में आकर बस गये थे। यहां प्रधान अध्यापक रहे और मुंगावली को ही उन्होंने अपना स्थाई निवास बना लिया था। मुंगावली अशोकनगर जिले के अंतर्गत तहसील मुख्यालय है। गर्भ अवस्था में माता गोमती देवी मुंगावली से अपने माॅयके प्रयागराज चलीं गयीं थीं और वहीं विद्यार्थी जी का जन्म हुआ। नानी गंगा देवी गणेश जी की भक्त थीं और नानाजी शिवजी के इसलिये ननिहाल में उनका नामकरण हुआ और "गणेश शंकर" नाम रखा गया। शिक्षा और साहित्य विधा में ननिहाल भी परिवार प्रतिष्ठित था इस नाते विद्यार्थी के ननिहाल की निकटता प्रयागराज में नेहरु परिवार से भी थी और प्रेमनारायण श्रीवास्तव परिवार से रिश्तेदारी भी। प्रेम नारायण जी यानि अभिताभ बच्चन के दादाश्री।
 
 
विद्यार्थी जी की मित्रता बचपन में पं जवाहरलाल नेहरु से हुईं जो आखिर तक बनी रही, लेकिन यह मित्रता विद्यार्थी जी की पत्रकारिता और प्रखर राष्ट्र भाव जाग्रति के अभियान में बाधा न बनी। उनके संबंध कितने गहरे रहे होंगे इसका अनुमान इस एक बात से लगाया जा सकता है कि विद्यार्थी जी के विरुद्ध लगाये गये एक मानहानि मुकदमे में गवाही देने के लिये पं जवाहरलाल नेहरू अदालत तक गये थे। यह बात अलग है कि न्यायधीश ने गवाही के तथ्य को शंकित माना और विद्यार्थी जी को सजा सुना दी। ठीक इसी प्रकार वे गाँधी जी के प्रशंसक थे। वे गाँधीजी के व्यक्तित्व को चमत्कारिक कहते थे किंतु स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से तालमेल के पक्ष में नहीं थे। असहयोग आँदोलन में जब गाँधी जी ने खिलाफत आँदोलन को सम्मिलित किया तो विद्यार्थीी जी ने अपनी असहमति की और प्रताप समाचार पत्र में संपादकीय लिखा। उनका मानना था कि खलीफा व्यवस्था का भारत से कोई संबंध नहीं। यदि इसका समर्थन करना है तो यह आँदोलन अलग हो और भारत की स्वतंत्रता का आंदोलन अलग। 1913 के बाद के उनके तमाम लेखों में पूर्ण स्वतंत्रता का अव्हान ही होता था, जो नारा तिलक जी ने दिया था।
 
 
प्रारंभिक जीवन और पत्रकारिता में प्रवेश - 
 
विद्यार्थी जी की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता के सानिध्य में मुंगावली में ही हुई, और 1905 में विदिशा नगर से मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की। महाविद्यालयीन शिक्षा वे पुनः प्रयागराज आये और यहीं से उनका सार्वजनिक जीवन आरंभ हुआ। लेखन में रुचि बचपन से थी चूंकि यह विधा उन्हे विरासत में मिली थी। पिता और नाना दोनों परिवार शिक्षा और साहित्य सृजन से जुड़े थे, इस नाते लेखन चिंतन उनके रक्त में आया। जब वे सोलह वर्ष के थे तब उनकी रचना "सरस्वती" पत्रिका में हुई थी। महाविद्यालयीन शिक्षा के दौरान वे सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी लेखक पत्रकार पं. सुन्दर लाल और साहित्यकार एवं पत्रकार पं महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आये। साहित्य में द्विवेदीजी को और पत्रकारिता में पं सुन्दर लाल को वे अपना आदर्श और गुरु मानते थे। साहित्य एवं पत्रकारिता में यह अंतर्धारा उनके प्रत्येक लेखन में झलकती है। उन्हे पढ़ने और लिखने का शौक बचपन से था इसी शौक ने उन्हें लेखक पत्रकार बनाया। उन्होंने सोलह वर्ष की आयु में "आत्मोसर्जना" लघु उपन्यास लिख दिया था। प्रयागराज में अपनी पढ़ाई के साथ उनकी रचनायें पत्र पत्रिकाओं में स्थान बनाने लगीं थीं। परिचय भी बढ़ा और समय के साथ "कर्मयोगी" के संपादकीय विभाग में सहयोगी हो गये थे। वे लेखन में अपने नाम आगे परिवार का पारंपरिक उपनाम "श्रीवास्तव" की बजाय "विद्यार्थी" लिखते थे। वे कहते कि अभी मैं विद्यार्थी हूँ इसलिये लिखता हूं। 1908 में अपनी पढ़ाई पूरी करके वे कानपुर आ गये यहाँ पहले करेंसी आफिस में नौकरी कर ली, तब उन्हें तीस रुपये माहवार वेतन मिला करता था लेकिन अध्ययन और लिखना सतत जारी रहा उनके लेखन में समाज को जाग्रत रहने और स्वयं के सम्मान का ध्यान रखने का आव्हान होता था।
 
 
लेखन की यह विधा अंग्रेज अधिकारी को पसंद न थी, इसलिये विवाद हुआ और वे नौकरी छोड़कर हाई स्कूल में शिक्षक हो गये। विद्यालय का वातावरण उनके अनुकूल था अतएव पठन-पाठन और लेखन का कार्य तेज चला। कर्मयोगी, स्वराज्य और कलकते की हितवार्ता में वे नियमित लिखते। 1911 में वे शिक्षक की नौकरी छोड़कर पत्रिका सरस्वती में सहायक हो गये। उन दिनों महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्वती के संपादक थे, यहाँ वे दो वर्ष रहे । 9 नवम्बर 1913 को उन्होंने प्रताप नाम से अपनी पत्रिका आरंभ की, यह नाम उन्होंने महाराणा प्रताप के ओज के रूप में माना था। प्रताप निकालने का निर्णय लिया तब उनकी आयु तेइस वर्ष की थी। परिवार की विरासत, अध्ययन और आयु का ओज इनकी त्रिवेणी ने उनका विचार बनाया था कि राष्ट्र का निर्माण महाराणा प्रताप जैसी संघर्ष शीलता और समर्पण से ही संभव है इसलिये उन्होंने पत्रिका का नाम "प्रताप" रखा। सात वर्ष पश्चात 1920 में प्रताप को दैनिक कर दिया।
 
 
भारत की स्वतंत्रता और सार्वजनिक अभियान में ऐसा कोई नहीं था जो उनके नाम और निर्भीक लेखन से परिचित न हो। 1916 में तिलक जी उनके कार्यालय आये थे, पत्रकारिता, लेखन, और समाज सेवा के साथ वे एनीवेसेन्ट के होमरूल आँदोलन से जुड़े थे। नेहरु जी के आग्रह पर विद्यार्थी जी काँग्रेस के सदस्य बन गये। वे 1925 में काँग्रेस के कानपुर अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष बने और बाद मै उत्तरप्रदेश काँग्रेस के अध्यक्ष भी बने। उन्होनें 1930 के सत्याग्रह में हिस्सा भी लिये और जेल गये। विद्यार्थी जी काँग्रेस के सदस्य तो बन गये पर न तो उनके लेखन की दिशा बदली और न अन्य गतिविधियाँ, उन्होंने प्रताप के कार्यालय के नीचे एक गुप्त तहखाना बनाया हुआ था जहाँ देश का समस्त प्रतिबंधित साहित्य एकत्र रहता था और वही क्राँतिकारियों के छिपने का स्थान था। विद्यार्थी जी को प्रताप में माखनलाल चतुर्वेदी और बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे सहयोगी मिल गये। इनके कारण प्रताप की यात्रा निर्वाध रही। विद्यार्थी जी के आँदोलन में जाने अथवा जेल जाने का प्रताप पर कोई अंतर न पड़ता था।
 
 
सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह ने अपने अज्ञातवास का ढाई वर्ष का काल-खंड विद्यार्थीी जी के सानिंध्य में ही गुजारा। वे "बलवंतसिंह" के नाम से प्रताप में काम करने लगे और इसी नाम से लेख लिखते। यह समाचार पत्र "प्रताप" की क्राँतिकारी आवाज थी कि तब कलकत्ता और पंजाब के बाद कानपुर ही क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। प्रताप में भगतसिंह ही नहीं राम दुलारे त्रिपाठी ने भी काम किया । इन्हें भी काकोरी कांड में सजा हुई थी। गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने ही अपने कार्यालय में क्राँतिकारी चंद्र शेखर आजाद और भगतसिंह की भेंट कराई थी। विद्यार्थी जी की प्रेरणा से ही श्यामलाल जी गुप्त ने "विश्व विजयी तिरंगा प्यारा" झंडा गीत लिखा और यहीं माखन लाल चतुर्वेदी जी ने अपना कालजयी गीत पुष्प की अभिलाषा लिखा। ये दोनों गीत सबसे पहले प्रताप में प्रकाशित हुये। विद्यार्थी जी के प्रयत्न से ही झंडा गीत कानपुर में काँग्रेस अधिवेशन में गाया गया। विद्यार्थी जी के प्रयत्न से ही क्राँतिकारी अशफाक उल्ला खान की कब्र बन सकी। बलिदानी अशफाक उल्ला को 1927 में फैजाबाद जेल में फाँसी दी गयी थी।
 
 
साम्प्रदायिक समन्वय के प्रयास में बलिदान - 
 
विद्यार्थी संस्कृत, हिन्दी, उर्दू फारसी और अंग्रेजी भाषाओं के जानकार थे। उनकी भाषा सरल शुद्ध और मुहावरेदार होती थी। पत्रकारिता में शुद्ध, सरल और मुहाबरे दार भाषा का चलन विद्यार्थी जी ने ही आरंभ किया था। भाषागत समन्वय उनकी लेखनी में ही नहीं था जीवन में था, वे राष्ट्र और संस्कृति को व्यक्ति जीवन ही नहीं धर्म सेवभी ऊपर मानते थे। उनके आलेखों में भी इस भाव की झलक है। उनका प्रत्येक पल राष्ट्र और संस्कृति के लिये समर्पित था और इसी सिद्धांत पर उनकी जीवन यात्रा का समापन हुआ। मात्र 41 वर्ष की आयु में ही उनका बलिदान हो गया, वह घटना 25 मार्च 1931 की है। कानपुर नगर में क्राँतिकारी भगतसिंह को फाँसी दिये जाने के विरोध में बंद का आह्वान किया गया था। क्राँतिकारी भगतसिंह का बलिदान 23 मार्च को हुआ था, जिसका देशभर में विरोध हुआ।
 
 
गम गुस्से और विरोध स्वरूप देश भर में बंद का आह्वान हुआ लेकिन मुस्लिम लीग और कुछ संगठनों ने बंद का विरोध किया। मुस्लिम लीग की पीठ पर अंग्रेजों का हाथ था। बंद के समर्थन और विरोध के बीच 24 मार्च से कानपुर में साम्प्रदायिक दंगा शुरु हो गया। विद्यार्थी जी को लगा कि वे दंगाइयो को जाकर समझा सकते हैं कि क्राँतिकारी भगतसिंह का बलिदान धर्म या जाति के लिये नहीं देश के लिये हुआ है इसलिए सबको मिलाकर विरोध करना चाहिए। विद्यार्थी जी को उम्मीद थी कि वे मुस्लिम समाज को बंद के समर्थन में तैयार कर सकते हैं। प्रताप के सहयोगियों ने विद्यार्थी जी को रोकना चाहा पर वे न रुके, विद्यार्थी जी जितने सरल और सहज थे उतने ही अपने निर्णय और लेखन में दृढ़ रहते थे। वे समझाने के लिये दंगाइयो के बीच चले गये लेकिन लौट न सके। दो दिन बाद दंगा थमा तब विद्यार्थी जी को ढूंढने का प्रयत्न हुआ लेकिन वे कहीं न मिले अंत में 29 मार्च को उनका शव 'अज्ञात शवों' के ढेर में मिला। देखकर लगा कि शव के साथ भी अमानुषिकता बरती गयी। शव निकाला और अंतिम संस्कार किया गया। किस गली में प्रहार हुआ किसने किया यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।