खुदीराम बोस जयंती.

मात्र 19 वर्ष की आयु में हुए बलिदान.

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    03-Dec-2024
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khudiram bose
 
 
रमेश शर्मा. 
 
 
 
दुनियाँ में ऐसा कोई देश नहीं जो कभी न परतंत्रता के अंधकार में न डूबा। लेकिन उनमें से अधिकांश का स्वरूप ही बदल गया। आज उन देशों की पूर्व संस्कृति का कोई अता पता नहीं है लेकिन भारत में दासत्व के लंबे अंधकार के बाद भी उसकी संस्कृति पुष्पित और पल्लवित हो रही है। इसका कारण यह है कि भारत में संस्कृति की रक्षा के लिये प्रतिक्षण बलिदान हुये। लाखों ऐसे बलिदान हुये जिन्हें सत्ता की कोई चाह नहीं थी, वह संघर्ष राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए था। ऐसा ही बलिदान क्राँतिकारी खुदीराम बोस का था, जो सोलह वर्ष की आयु में अपनी पढ़ाई छोड़कर क्राँतिकारी बने और उन्नीस वर्ष की आयु पूरी करने से पहले ही फाँसी पर चढ़ गये। ऐसे अमर बलिदानियों के आत्मोत्सर्ग से हमें यह स्वतंत्रता मिली है जिनमें से अधिकांश को हम स्मरण तक नहीं करते।
 
 
ऐसे ही अमर बलिदानी हैं क्राँतिकारी खुदीराम बोस। क्रान्ति कारी खुदीराम बोस का जन्म बंगाल के मिदनापुर जिले के ग्राम बहुबैनी में 3 दिसंबर 1889 को हुआ था। शिक्षा, संस्कार और स्वाभिमान उनकी विरासत रही। माता लक्ष्मीप्रिया देवी की दिनचर्या धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन से ओतप्रोत थी तो पिता त्रैलोक्यनाथ बोस संस्कृत के विद्वान थे। अपनी परंपरा के अनुरूप उन्होने बालक को पढ़ने भेजा। विद्यालय का वातावरण यद्यपि अंग्रेजों की दासता से भरा था जहाँ प्रतिदिन प्रार्थना में अंग्रेज शासक के प्रति नमन् की प्रार्थना होती थी। यह बात खुदीराम बोस के पिता को पसंद न थी पर विवशता के चलते खुदीराम विद्यालय जाते रहे पर उन्होंने न केवल अपने बच्चे अपितु विद्यालय जाने वाले अपने आसपास के सभी बच्चों को घर में संस्कृत और संस्कारों की शिक्षा घर में आरंभ कर दी।
 
 
बंगाल में अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति अपमानजनक व्यवहार किसी भी स्वाभिमानी भारतीय को पसंद न था। इसकी अभिव्यक्ति समय समय पर होती रही। इसी बीच 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल के विभाजन का निर्णय किया, इस निर्णय का आधार नगरीय क्षेत्रों में साम्प्रदायिक तुस्टीकरण और वनवासी क्षेत्रों में मिशनरीज की जड़े जमाना था। बंगाल विभाजन के समय खुदीराम सोलह वर्ष के थे और नौवीं कक्षा में पढ रहे थे। बंगाल विभाजन का विरोध आरंभ हुआ और पुलिस ने इस विरोध को शक्ति से दबाना शुरू किया। संघर्ष और दमन के चलते पूरे बंगाल में तनाव हो गया, किशोर वय खुदीराम बोस पढ़ाई छोड़ कर आँदोलन में जुट गये और उन्होंने रिवोल्यूशनरी पार्टी की सदस्यता ली। वे भले पन्द्रह सोलह वर्ष के थे लेकिन उनकी कदकाठी बहुत दुबली थी इस कारण वे अपनी आयु चार पाँच साल छोटे लगते थे अतैव इस कारण पार्टी ने उन्हें पर्चे बांटने, पिस्तौलें और संदेश यहाँ वहाँ भेजने के काम में लगाया।
 
 
इसका आरंभ वंदेमातरम के पोस्टर बांटने और उन्हें चिपकाने के काम से हुआ। वे एक बार पोस्टर चिपकाते पकड़े गए आयु से कम दिखने के कारण थानेदार ने छोटा बच्चा समझा। उन्हें चांटे लगाकर और चेतावनी देकर छोड़ दिया। खुदीराम बोस ने पहला बम 28 फरवरी 1906 को उस ट्रेन पर फेका जिसमें वायसराय निकलने वाले थे लेकिन निशाना चूक गया और खुदीराम बंदी बना लिये गये लेकिन वे कैद से निकल भागे। इसी बीच वे क्राँतिकारी युवकों के दल युगान्तर से भी जुड़ गये। उन दिनों बंगाल में एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड आया, वह क्राँतिकारी आँदोलन ही नहीं अंग्रेजों के विरुद्ध प्रदर्शित की गयी किसी भी असहमति पर कठोर यातनाएं देता। अदालत में अपमानित करता, जेल में यातनाओ के खुलेआम आदेश करता।
 
 
युगान्तर पार्टी ने इस मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड को रास्ते से हटाने का सौचा। इसकी खबर सरकार को लग गयी थी इसलिये उसका तबादला मिदनापुर से मुजफ्फरपुर कर दिया गया। मुजफ्फरपुर इन दिनों बिहार में है। युगान्तर पार्टी ने उसे वहीं जाकर सबक सिखाने का निर्णय लिया और इस काम के लिये खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को चुना गया। दोनों क्राँतिकारी मुजफ्फरपुर पहुँचे, जहाँ उन्होंने उसकी दिनचर्या का पता लगाया और 20 अप्रैल 1908 को उसे क्लब के बाहर बम से उड़ाने की योजना बनी। बम फेकने का काम खुदीराम बोस को दिया गया जबकि प्रफुल्ल चाकी पिस्तौल लेकर चला कि यदि यदि बम से बचे तो गोली मारी जाये। निर्धारित तिथि पर रात साढ़े आठ बजे मजिस्ट्रेट की बग्गी निकली, लेकिन उसमें मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड नहीं बैठा था दो ब्रिटिश महिलायें मिसेज केनेडी और उसकी बेटी बैठीं थीं। मजिस्ट्रेट ने क्यों अपनी बग्गी बदली और क्यों अपनी बग्गी में दो यूरोपियन महिलाओं को बिठाकर बाहर भेजा, इस रहस्य से कभी पर्दा न उठा।
 
 
बग्गी की प्रतीक्षा बाहर दोनों क्राँतिकारी कर रहे थे। जैसे ही बग्गी उनकी पहुँच के भीतर आयी, खुदीराम ने बम फेक दिया, बम निशाने पर लगा और बग्गी के चिथड़े उड़ गये। बम कितना जबरदस्त था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी आवाज तीन मील तक सुनी गयी। पूरा इलाका दहल गया और दोनों क्राँतिकारी वहां से निकला गए। भागकर वैनी स्टेशन आये पर यहाँ पुलिस से घिर गये। अपने बचने का कोई मार्ग न देख प्रफुल्ल चाकी ने पिस्टल से स्वयं को गोली मार ली और खुदीराम बंदी बना लिये गये। उन्हें जेल में भारी प्रताड़ना दी गयी ताकि वे अपने अन्य क्राँतिकारियों के नाम बता दें लेकिन खुदीराम ने मुँह न खोला और अंततः 11 अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी दी गयी। तब उनकी आयु पूरे उन्नीस वर्ष भी न थी। वे श्रीमद्भगवद्गीता का नियमित पाठ करते थे और फाँसी के समय भी वे गीता अपने साथ ले गये थे ।