इतिहास में आज - 17 जनवरी 1601 : अकबर ने धोखे से कब्जाया असीरगढ़ किला

17 Jan 2025 15:03:56

Asirgarh Kila
  
रमेश शर्मा - 
 
बचपन की पाठ्यपुस्तकों में मुगल बादशाह अकबर को महान पढ़ा था और उन पुस्तकों में कुछ उदाहरण भी थे। इस कारण अकबर को और समझने की जिज्ञासा सदैव बनी रही साथ ही आगे चलकर उनकी महानता की अनेक कहानियाँ भी पढ़ी। हो सकता है वे सारी घटनाएं सही हों पर अकबर के अधिकाँश सैन्य अभियान धोखे और चालाकियों से भरे हैं। भारत में अकबर के जितने सैन्य विजय हुईं वे अकबर के शौर्य और सैन्य बल से कम अपितु कूटनीति, फूट डालकर, परिवार जनों को तोड़कर या किसी भेदिये को किले में भेजकर दरबाजा खुलवाने की युक्ति से भरीं हैं। उनमें एक है मध्यप्रदेश में सतपुड़ा के शिखर पर बने असीरगढ के किले पर अकबर महान के कब्जे का विवरण, जो उन्होंने धोखे से किया था। कब्जे के बाद किले में लूट और हत्याकांड का सिलसिला एक सप्ताह तक चला।
 
अकबर महान ने यह धोखा असीरगढ के सूबेदार बहादुर शाह फारुकी के साथ किया था। हालांकि फारूकी खानदान ने भी इस किले पर धोखा देकर ही कब्जा किया था और वही धोखा उनके सामने आया। असीरगढ का यह किला बुरहानपुर जिले में है, जिला मुख्यालय से बीस किलोमीटर की दूरी पर, जो संसार के प्राचीनतम पर्वतों में से एक सतपुड़ा के शिखर पर बना है। सतपुड़ा हिमालय से भी प्रचीन पर्वत है, उसी के शिखर पर यह यह किला बना है जिसकी गिनती दुनियाँ के अजेय किलों में की जाती है। यह किला कब बना किसने बनाया इसका निश्चित विवरण कहीं नहीं मिलता। हमलावरों ने इसके सभी साक्ष्य नष्ट कर दिये, फिर भी इसकी बनावट में मौर्यकाल की झलक भी है और गुप्तकाल की भी लेकिन अधिकांश निर्माण कला की शैली बारहवीं शताब्दी की लगती है जो समय के साथ हुये सुधार और विस्तार के कारण हुये। पुरातात्विक विशेषज्ञों ने किले की नींव और कुछ निर्माण ईसा पूर्व के माने हैं और कहा है कि यह निर्माण अति प्राचीन है। समय के साथ इसके पुनर्निर्माण होते रहे हैं इसीलिये इसके अस्तित्व में विविधता है। असीरगढ किले में हर युग की शिल्प कला झलकती है। स्थानीय नागरिकों में यह धारणा प्रबल है कि यह क्षेत्र रामायण काल में भी समृद्ध रहा है और पांडव काल में भी। किले में भगवान् गुप्तेश्वर मंदिर है, इस मंदिर के बारे में धारणा है कि यहां प्रतिदिन अश्वत्थामा पूजन के लिये आते हैं। यह प्रसंग इस स्थान को महाभारत काल से जोड़ता है, इस मंदिर में कुछ आश्चर्य तो हैं जो लोग लोगों की जिज्ञासा का कारण हैं और उन्ही से अश्वत्थामा की किंवदंती को बल मिलता है।
 
 
असीरगढ़ के इतिहास के बारे में अभी जो विवरण मिलता हैं वह इतिहासकार मोहम्मद कासिम द्वारा लिखित है। उनके अनुसार यह निर्माण बारहवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच हुआ। किले को आशा अहीर ने बनवाया था और उन्ही के नाम पर किले का नाम असीरगढ़ पढ़ा, पर आशा अहीर का भी अधिक विवरण नहीं मिलता। बहादुरशाह फारूकी के परिवार ने इन्हीं आशा अहीर से यह किला धोखा देकर पाया था। इतिहासकार मोहम्मद कासिम के विवरण के अनुसार दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक का एक सरदार था मलिक फारूकी। दिल्ली के सत्ता संघर्ष में मलिक फारूकी अपने साथी सिपाहियों के साथ दिल्ली से दक्षिण की ओर चल दिया। उन दिनों बुरहानपुर और असीरगढ़ को दक्षिण का द्वार माना जाता था। दिल्ली के हर शासक ने असीरगढ़ पर हमला किया महीनों घेरा रहा, तोपें चलीं, पर कोई सफलता नहीं मिली। अधिकांश हमले बेकार हुये और इसका कारण किले की ऊँचाई है। उस युग में असीरगढ़ एक समृद्ध नगर हुआ करता था जो बार बार के हमलों में पूरी तरह उजड़ गया और अब एक छोटा सा गाँव रह गया।
 
असफल होकर मलिक लौट गय। जाते समय आशा अहीर को भेंट दे गया और हमले के लिये माफी भी मांग गया, लेकिन वह एक माह बाद अपने दल के साथ पुनः असीरगढ़ आया। उसने अपना कैंप नगर के बाहर लगाया, उसने किलेदार आशा अहीर को खबर भेजी कि उसके परिवार और परिवार की महिलाओं की जान खतरे में है अतैव शरण चाहिए। उदार आशा अहीर ने परिवार की सुरक्षा का आश्वासन दिया और किले के दरवाजे खोल दिये। मलिक फारूकी ने कुछ डोले भेजे और कहा कि इनमें बहन बेटियाँ हैं इसलिए आशा अहीर ने अपने पुत्रों को उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी। परन्तु जैसे ही डोले किले के भीतर पहुँचे उन डोलों में से सैनिक निकल पड़े, उन्होंने सबसे पहले आशा अहीर के पुत्रों को मार डाला और मलिक फारूकी ने आशा अहीर को, इस तरह मलिक फारूकी ने किले पर कब्जा कर लिया। इसके बाद लूट, हत्या और बलात्कार का सिलसिला चल पड़ा, किले के भीतर वही जीवित बचा जिसने इस्लाम कबूला बाकी सब मार डाले गये। मंदिर तोड़ करके मस्जिदों में बदल दिए गए। आज भी वहां मस्जिदों में मंदिरों की नक्काशी के पत्थर देखे जा सकते हैं। जिस सूबेदार बहादुर शाह फारूकी से बादशाह अकबर ने किला छीना वह इस मलिक फारूकी का वंशज था।
 
अकबर ने 1600 में दक्षिण का रुख किया और उसकी फौज कहर बरपाती हुई असीरगढ़ पहुँची। किले पर कोई 6 माह तक घेरा पड़ा रहा लेकिन सफलता नहीं मिली और न बहादुरशाह विचलित हुआ। इसका कारण यह था कि किले के भीतर राशन पानी का पर्याप्त प्रबंध था अतैव फारुखी भीतर सुरक्षित रहा। जब तोप के गोले भी बेअसर हुये तब अकबर ने चाल चली, ठीक उसी प्रकार जैसी मलिक फारुकी ने चली थी। अकबर ने कीमती भेंट भेजकर दोस्ती का संदेश दिया और कहा कि वे लौट रहे हैं जाते जाते दोस्ती का हाथ मिलाना चाहते हैं और साथ ही दावत करना चाहते हैं। फारुखी को यकीन हो इसके लिये अकबर ने तोपखाना रवाना कर दिया था और इस संदेश पर फारुकी ने कोई एक सप्ताह विचार किया। उसने मुखबिरों से पता लगाया और उसे सूचना मिली कि न केवल तोपखाना बल्कि आधी फौज भी वापस हो चुकी है। उसने दोस्ती का पैगाम कबूल कर लिया और अपने परिवार सहित दावत करने अकबर के कैंप में आ गया।
 
वह 17 जनवरी 1601 की तिथि थी। दोपहर में अकबर ने स्वागत किया, साथ भोजन की दावत हुई और बातचीत के लिये दूसरे पांडाल में गये। वहां पहले से यह प्रबंध था कि कौन कहाँ बैठेंगे और सब लोग निर्धारित आसन पर बैठकर बातें करने लगे। तभी अचानक फारुकी और उसके बेटों पर पीछे से हमले हुये और पकड़ लिये गये। इसके साथ ही मुगल घुड़सवार किले में दाखिल हुये साथ ही बंदी के रूप में फारूकी के दो बेटों को साथ ले जाया गया। एक बेटा और फारुकी को नीचे ही बंदी रखा गया इसके बाद वहां घोषणा हुई कि यदि किसी ने विरोध किया तो फारुकी और उसके पूरे खानदान को कत्ल कर दिया जायेगा। यह सुनकर सब लोग सिर झुका कर खड़े हो गये तत्पश्चात सैनिकों ने सबसे पहले शस्त्रागार पर कब्जा किया फिर जनानखाने को अपने कब्जे में लिया। धन पूछा गया जनानखाने और वफादारों को अकबर के सामने प्रस्तुत किया गया जिसके बाद पुरूषों को कत्ल करने का हुक्म हुआ और महिलाएं सैनिकों को भेंट कर दी गयी। इसके बाद असीरगढ़ के किले पर 17 जनवरी 1601 से 1760 तक मुगलों का कब्जा रहा। 1760 में मराठों ने इस किले पर अपना आधिपत्य किया, जो मंदिर असीरगढ़ में आज देख रहे हैं उनका जीर्णोद्धार मराठा काल में ही हुआ। किले पर मराठों का आधिपत्य 1760 से 1819 तक रहा, इसके बाद यह किला कुछ वर्षों तक वीरान यहाँ फिर 1904 में किले पर अंग्रेजों का आधिपत्य हो गया। किले में अनेक शिलालेख हैं जो अधिकांश मुगल काल के हैं।

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