वैज्ञानिक अनुसंधान, समय की गति, ऋतु परिवर्तन और सकारात्मक जीवन का संदेश है भारतीय नववर्ष

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    30-Mar-2025
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विक्रम संवत् 2082 -रमेश शर्मा
भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ल पक्ष की एकम् से आरंभ होता है। अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार इस वर्ष यह तिथि 30 मार्च को है। नये साल को "नवसंवत्सर" कहते हैं और नववर्ष के पहले दिन चैत्र शुक्ल पक्ष की एकम् "गुड़ी पड़वा" के रूप में मनायी जाती है। आधुनिक दुनियाँ में काल गणना पत्रक को "कैलेण्डर" और भारतीय परंपरा में "पंचांग कहते हैं। समय मापने के पाँच आधार होने के आधार पर इसका नाम पंचांग है। वैज्ञानिक पद्धति से समय गणना की यह संसार की सबसे प्राचीन पद्धति है। संसार के समस्त प्राणियों का जीवन और सौर मंडल का समय चक्र अंतरिक्ष के ग्रहों की स्थिति से चलता है। कब दिन होगा, कब रात होगी, गर्मी सर्दी और बरसात यह सब ग्रहों की गति पर निर्भर होता है। अंतरिक्ष के ग्रहों की स्थिति का सर्वाधिक अध्ययन भारतीय मनीषियों ने किया है। अपने अनुसंधान के आधार पर अंतरिक्ष के ग्रहों की स्थिति के अनुरूप जीवन शैली का विकास किया है। और इसी आधार पर समय चक्र बनाया जिसमें संवत के नाम और संवत आरंभ होने की तिथि निर्धारित करके पंचांग को आकार दिया। पंचांग में केवल दिन या तिथि की ही जानकारी नहीं होती। यह पाँच तत्वों पर आधारित होती है। दिन, तिथि, नक्षत्र, कर्ण और योग। ये ग्रहों की गति आकलन के सूत्र हैं। इनके आकलन से मौसम बदलने, बरसात होने अथवा सूखा पड़ने के संकेत मिलते है। आधुनिक विज्ञान वेधशाला में अध्ययन के बाद सूर्य ग्रहण अथवा चन्द्र ग्रहण की तिथि की घोषणा होती है लेकिन भारतीय पंचांग में यह अनुमान पहले से दिया होता है। यह भारतीयों के लिये अतिरिक्त गौरव का प्रसंग है कि ग्रहण केलिये पंचांग से निर्धारित समय और वैज्ञानिकों द्वारा घोषित समय में कभी कोई अंतर नहीं आता। इसी अनुसंधान का निष्कर्ष है भारतीय संवत्सर और उसका पहला दिन गुड़ी पड़वा। भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ल पक्ष एकम् से आरंभ होता है। यह तिथि इस वर्ष 30 मार्च को है। गुड़ी पड़वा से विक्रम संवत् 2082 का और युगाब्द 5127 का आरंभ हो रहा है। भारतीय गणना में प्रत्येक वर्ष का अपना नाम होता है। इस वर्ष संवत्सर का नाम "कालयुक्त" होगा । भारतीय परंपरा में प्रतिवर्ष का कोई न कोई ग्रह राजा होता है और कोई ग्रह मंत्री। इस वर्ष के राजा के सूर्य होंगे। मंत्री का दायित्व भी सूर्यदेव स्वयं संभालेंगे। चैत्र शुक्ल पक्ष एकम् अर्थात गुड़ी पड़वा सृष्टि के विकास आरंभ का दिन माना जाता है। सृष्टि के सृजन तिथि शिवरात्रि है। लेकिन समय और सृष्टि की विकास प्रक्रिया चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से आरंभ होना मानी जाती है। भारत में इसदिन की विशेष महत्ता है। महाभारत काल में सम्राट युधिष्ठिर ने अपने राज्याभिषेक केलिये इसी तिथि का चयन किया था। और इसी तिथि को सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ। इन दोनों तिथियों से दो अलग-अलग काल गणना पंचांग अर्थात कैलेण्डर आरंभ हुये। सम्राट युधिष्ठिर के राज्याभिषेक से आरंभ नववर्ष गणना अर्थात "कैलेण्डर" को "युगाब्द" और सम्राट विक्रमादित्य के राज्याभिषेक से आरंभ गणना को "विक्रम संवत" कहते हैं। युगाब्द संवत को पंचांग निर्माता तो मान्यता देते हैं पर सरकारी मान्यता नहीं है। सरकारी मान्यता विक्रम संवत को है। विक्रम संवत के अतिरिक्त एक अन्य "शक संवत" को भी राष्ट्रीय मान्यता है। शक संवत का आरंभ शालिवाहन काल में शकों से भारत की मुक्ति केसाथ आरंभ हुआ था। भारतीय समाज जीवन में विक्रम संवत को अधिक मान्यता है। तीज त्यौहारों का निर्धारण विक्रम संवत के आधार पर तैयार पंचांग से ही होता है। पंचांग में काल गणना की दो विधियाँ होतीं हैं। एक चंद्रमा की गति पर आधारित और दूसरी सूर्य की गति पर आधारित। चन्द्र गणना में वर्ष की अवधि 355 दिन होती है। जबकि सूर्य गणना में 365 दिन। शक संवत में गणना सूर्य आधारित होती है। जबकि विक्रम संवत आधारित पंचांग में ये दोनों गणनाएँ होतीं हैं। तीज त्यौहार और तिथि निर्धारण तो चन्द्र गणना से होता है लेकिन इसे सूर्य की गति से संतुलित कर लिया जाता है। संतुलन केलिये जोड़ी गई अवधि को "मल मास" कहा जाता है। मलमास की अवधि का निर्धारण बृहस्पति और मंगल की गति से संतुलन समझकर किया जाता है। इस संतुलन की तिथि मकर संक्रांति अर्थात 14 जनवरी है। इस प्रकार विक्रम संवत के वर्ष की अवधि भी 365 दिन हो जाती है। भारतीय नववर्ष पूरे भारत में मनाया जाता है। पर हर क्षेत्र में उसके नाम अलग हैं। कहीं "गुड़ी पड़वा" तो कहीं"चेती चाँद"। कहीं "युगादि" तो कहीं "उगादी"। कहीं "पड़वो" तो कहीं "नवरेह" नाम से जाना जाता है। मणिपुर में नववर्ष दिवस को सजिबु नोंगमा पानबा कहते हैं। संवत नाम का निर्धारण और वर्ष, माह और दिनों के नाम का अनुसंधान भारत में किसी तीज त्यौहार की परंपरा और उसके नाम यूँ ही नहीं होते । उसके पीछे एक दर्शन होता है, अनुसंधान होता है। यह अनुसंधान काल गणना के आरंभ की तिथि चैत्र शुक्ल पक्ष एकम् के निर्धारण के अतिरिक्त संवत्सर नामकरण में भी हुआ है। संवत्सर और माह के नामों के निर्धारण में भाषा विज्ञान, समय और ग्रहों की गति का अनुसंधान है। युगाब्द और विक्रम संवत के साथ ऐसा नहीं है कि इसका निर्धारण बाद हो लेकिन पूर्व के वर्षो का आकलन करने इतिहास की किसी महत्वपूर्ण तिथि से लागू हुआ हो। जैसा गैगेरियन कैलेण्डर की रचना में हुआ। इस कैलेण्डर का निर्माण तो सत्रहवीं शताब्दी में हुआ था लेकिन इसे ईसा मसीह की तिथि का आकलन करके लगभग सोलह सौ वर्ष पूर्व की तिथि से लागू किया गया। जबकि भारतीय काल गणना युगाब्द, विक्रम संवत और शक संवत तीनों पहले दिन से ही पूर्ण आकलन के साथ लागू हुये हैं। यूरोप में जब अपने पुराने कैलेण्डरों में सुधार करके समय की गति के अनुरूप सटीक कैलेण्डर बनाये जा रहे थे तब तो भारत में समय की गति को पत्थरों पर उकेरा जाने लगी थी। इसे जयपुर, उज्जैन की भग्न वेधशालाओं और दिल्ली के जंतर मंतर से समझा सकता है। काल गणना को वर्ष के रूप में "संवत्सर" नाम साधारण नहीं है। यह भाषा विज्ञान का अद्भुत अनुसंधान है। संवत्सर संस्कृत भाषा का शब्द है। संस्कृत में शब्द रचना का अपना सिद्धांत होता है। इसमें धातु, "प्रत्यय" "उपसर्ग" आदि होते हैं। "संवत" शब्द संस्कृत की दो धातुओं से बना है । एक धातु सम् और दूसरी वत् । पहली "सम्" धातु में "स" सृष्टि का और "म्" सृष्टि के नाद का प्रतीक है । इसीलिये सृजन, सृष्टि, संसार, संहार जैसे शब्द इसी धातु से बनते हैं । और म् सृष्टि के रहस्य का प्रतीक है । इसीलिये ओइम् परम् जैसे शब्दों को पूर्णता म् से ही मिलती है। माँ का आरंभ भी म् से होता है । जबकि वत् गति का प्रतीक है। अब इन दोनों धातुओं को मिला कर शब्द बना संवत् । संवत उपसर्ग में ‘सरन्’ प्रत्यय के रूप में जोड़ने से "संवत्सर" शब्द बनता है। संवत्सर की परिभाषा में कहा गया है- “सं वसन्ति ऋतवो अत्र संवत्सरः” अर्थात जिसमें ऋतुएँ निवास करती हैं, वह संवत्सर है। पूरे वर्ष में छै ऋतुएँ होतीं हैं। सभी का निवास अर्थात वर्ष की पूर्णता का नाम संवत्सर होता है। शब्द संवत्सर में में नव शब्द उपसर्ग के रूप में जोड़ने से नवसंवत्सर शब्द बनता है। अर्थात एक ऐसी तिथि, ऐसा समय, ऐसा पल जब हम सृष्टि के रहस्यों के अनुरूप नव सृजन के विस्तार की ओर अग्रसर होते हैं अथवा अग्रसर होने का संकल्प लेते है । गुड़ी पड़वा का अर्थ मनाने का तरीका भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का दिन उत्सव मनाने का नहीं होता। यह पूरे वर्ष आने वाली चुनौतियों और ऋतु परिवर्तन के अनुरूप स्वयं को सक्षम बनाने का होता है। गुड़ी पड़वा को सूर्योदय के पूर्व उठना, नदी झरना आदि बहते हुये जल स्रोत पर जाना, स्नान करके ऊगते सूर्य को अर्ध्य देना, घर आकर नींम की कौपलों को पीसकर उसकी गोलियाँ बनाना और खाना। यह आरोग्य केलिये सर्वोत्तम उपाय है। ऐसी गोलियाँ पालतू पशुओं को भी दी जातीं हैं। घर के बाहर भगवा रंग का एक छोटा ध्वज फहराया जाता है। यह माना जाता है कि सृष्टि के आरंभ केलिये जब अंधकार को चीरकर प्रकाश की पहली किरण उत्पन्न हुई वह पहली प्रकाश किरण भगवा रंग की थी। इसे प्रातःकालीन सूर्योदय से पूर्व ऊषाकाल में सूर्य की आभा से समझ सकते हैं। तब सूर्य पर भगवा रंग की ही आभा होती है। उसी के प्रतीक के रूप में गुड़ी पड़वा को भगवा ध्वज फहराया जाता है। गुड़ी का एक अर्थ ध्वज भी होता है। इसी तिथि से चैत्र नवरात्र आरंभ होते हैं। यह बसंत और ग्रीष्म ऋतु के संगम की अवधि है। ऋतु संगम सदैव मानवीय स्वास्थ्य पर प्रभाव डालता है और अस्वस्थ होने की आशंका उत्पन्न हो जाती है। जिसे आम बोल चाल में मौसमी बीमारी कहते हैं। आयुर्वेद की दृष्टि से नवरात्र के नौ दिन कायाकल्प की अवधि होती है। यदि आयुर्वेद के अनुसार नवरात्र में कायाकल्प नियम का पालन किया जाय तो शरीर में बीमारियों के बचाव केलिये "इम्युनिटी" बढ़ती है। पहले तीन दिन धीरे धीरे आहार कम करना अथवा फलाहार लेना। चौथे दिन निराहार रहना, फिर फलाहार और धीरे धीरे पूर्ण आहार की ओर बढ़ना। चैत्र शुक्ल पक्ष एकम् से नौ दिन तक किये गये इस नियम से अद्भुत आरोग्य क्षमता उत्पन्न होती है। संवत्सर नाम और आरंभिक नौ दिनों की दिनचर्या के साथ आरंभ भारतीय काल गणना भी विशिष् है। गैगरियन कैलेण्डर में दिन और दिनांक केवल दो बातों की ही जानकारी मिलती है। जबकि भारतीय युगाब्ध और विक्रम संवत आधारित पंचांग में पांच बातों की गणना की जाती है । इसमें तिथि, वार, नक्षत्र, कर्ण और योग इन पाँच सूचकों की जानकारी होती है । माह के नाम भी व्यक्तियों अथवा घटनाओं के आधार पर नहीं होते, ये नक्षत्रों के नाम के आधार पर होते हैं । जैसे चैत्र मास का आरंभ चित्रा नक्षत्र से होता है इसीलिए चित्रा नक्षत्र के आधार पर मास का नाम भी चैत्र है । विशाखा नक्षत्र से वैशाख माह, ज्येष्ठा नक्षत्र के नाम से ज्येष्ठ माह आदि। सभी बारह माहों के नाम उनके आरंभिक नक्षत्र के नाम पर रखे गये है । माह के दिनों निर्धारण भी नक्षत्र की कालावधि से होता है । इसके लिये कुछ सूत्र हैं । उनके आकलन से ही मौसम के परिवर्तन और ग्रहों की स्थिति का प्राणियों के जीवन पर प्रभाव का सटीक आकलन हो सकता है। संवत्सर की अवधि का निर्धारण भारतीय काल गणना के लिये तैयार किये जाने वाले संवत्सर में माह, नक्षत्र एवं तिथियों का निर्धारण समान नहीं होता। इसमें कुछ घंटों या पलों का अंतर हो सकता है। अवधि का यह निर्धारण में भी अंतरिक्ष में ग्रहों की गति के आधार पर हुआ है। इसीलिए अंतर आता है। पृथ्वी अपनी धुरी पर 1600 किलो मीटर प्रति घंटे की गति से घूमती है उसे एक पूरा चक्कर लगाने में चौबीस घंटे लगते हैं । इसे अहोरात्र कहते हैं । इसका एक भाग एक घंटे का होता है। पंचाग की भाषा में इसे 'होरा' कहते हैं । होरा को यदि रोमन में लिखेंगे "HOURA" स्पेलिंग बनेगी इसमें से "A" को हटाकर अंग्रेजी में HOUR यनि आवर कहा गया । यूरोप में यह संबोधन भी एक घंटे के लिये है । भारत में पंचांग यूरोप के कैलेण्डर से सैकड़ों साल पहले हो गया था इसलिये यह अनुमान कठिन नहीं है कि एक घंटे केलिये "ऑवर" शब्द भारत से गया है। यूरोपीय कैलेण्डर में पहले केवल दस माह होते थे । दिनों की संख्या भी नियमित नहीं थी । इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि यूरोपियन्स ने समय मापने के भारतीय सूत्र समझे और इसी आधार पर अपने कैलेण्डर को बारह मासी बनाया। भारतीय पंचांग में पृथ्वी और सूर्य की गति के आधार पर माह के दिनों की गणना हुई है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुये सूर्य की परिक्रमा 27 दिन और तीन घंटे में पूरी करती है । इसलिये यह अवधि एक माह की पूर्णता मानी गयी । लेकिन पंचांग में माह के दिनों की अवधि का निर्धारण केवल पृथ्वी की गति की पूर्णता से नहीं होता । इसमें अन्य ग्रहों की गति को भी समाहित रहती है इसलिये वर्ष में 365 दिनों से थोड़ा अधिक समय लगता है । यह समय 365 दिन 15 घड़ी और 30 पल लगते हैं । इस अतिरिक्त समय को " मलमास" की अवधि जोड़कर पूर्ण किया गया। कुल मिलाकर भारतीय नववर्ष हजारों हजार वर्ष पूर्व का अद्भुत वैज्ञानिक अनुसंधान का निष्कर्ष है। संवत्सर नाम यजुर्वेद में भी मिलता है। जिसका संकेत है कि भारत में वैदिक काल से ही वैज्ञानिक अनुसंधान के अनुसार तिथियों और परंपराओं का निर्धारण आरंभ हो गया था। नववर्ष की शुरुआत आधीरात के अंधकार में नहीं होती अपितु ऊगते सूरज की पहली किरण के साथ होती है। जीवन के सुख और संकल्पना का आधार ऊगता सूरज होता है। नई ऋतु का आरंभ होता है। चैत्र शुक्ल पक्ष की एकम् बसंत और ग्रीष्म ऋतु का संगम भी है। ऋतु परिवर्तन प्राणी देह पर प्रभाव डालता है। इसलिये ऋतु संगम पर स्वास्थ्य रहने के लिये आरोग्य की साधना भी आवश्यक है। इसीलिए भारतीय परंपराओं नव संवत्सर के पहले दिन को सकारात्मक संकल्पना के साथ जोड़ा गया है।